Sunday 23 October 2011

अन्ना का अनशन खत्म हुआ. पक्ष विपक्ष, सरकार- सभी खुश हैं. इस अनशन और जीत ने २० साल पुरानी एक याद ताज़ा कर दी है. वह भी एक अनशन था – दिल्ली पटना से दूर. नालंदा जिले के कैथिर गांव में एक ग्रामीण गृहस्थ थे, सीताराम सिंह. उनकी समस्या थी – उनकी सज्जनता और परोपकारी स्वभाव. एमएलए, एमपी या मुखिया बनने की कोई राजनैतिक महत्वाकांक्षा भी उनमे नहीं थी. फिर भी ग़रीबों की मदद करने के लिए वे कुछ भी कर सकते थे.
अपने हिस्से की सारी पुश्तैनी जमीन उन्होंने किसी की शादी के लिए तो किसी को पढाने के लिए, किसी का इलाज करने के लिए रेहन कर दी या बेच दी. बरसात में गांव के स्कूल का छप्पर चूता था और कहीं से पैसों का इंतजाम नहीं था तो उन्होंने अपने घर के खपडे उतरवा कर स्कूल को दे दिए. आपको शायद सहज यकीन नहीं हो कि कोई गुमनाम अनजान गृहस्थ भी ऐसा कर सकता है. ये दौर ही ऐसा है. लेकिन सीताराम सिंह किसी और ही दौर के थे शायद.
जब गांव में गुजर बसर मुश्किल हो गई तो सीताराम सिंह कोलकाता चले गए. वहां नीबू बेचे. तीन चार साल बाद लौटे तो गांव की दुर्दशा देख कर बीडीओ, डीएम, मंत्री मुख्यमंत्री को ज्ञापन वगैरह भेजने लगे. ऐसे लोग आपने बहुत देखे होंगे जो ज्ञापन, उनके रिमाइंडर, मुख्यमंत्री-प्रधानमन्त्री वगैरह के नाम बीसियों पत्र झोले में लेकर उनकी प्रतियाँ अख़बारों के दफ्तरों में बांटते रहते हैं, अफसरों के यहाँ पहुँचते रहते हैं, घंटों बाहर बैठे इंतज़ार करते हैं, सभ्य भाषा में दुरदुराए जाते हैं फिर भी फिर फिर आते हैं. असंख्य गांवों में गुमनाम फैले इन छोटे छोटे गांधियों के बारे में किसी को कुछ पता नहीं होता कि वे कहाँ से आते हैं, क्यों फ़ालतू चिट्ठियां भेजते हैं और संक्षेप में – वे होते ही क्यों हैं. कोई उन्हें सीरीयसली नहीं लेता.
सीताराम सिंह को भी किसी ने सीरियसली नहीं लिया. वे कोई अन्ना हजारे और गांधी तो थे नहीं जिनके हज़ारों हाथ और करोडो समर्थक हों. सीताराम अकेले थे. उनके घर उजाडू स्वभाव के चलते भाइयों ने पहले ही उनका हिस्सा देकर उन्हें अलग कर दिया था. लेकिन उन्होंने गाँव की समस्याओं को सीरीयसली ले लिया और यह मान बैठे कि सत्याग्रह से उन समस्याओं का समाधान हो सकता है.
अब यह भी सुन लीजिए कि समस्याएँ क्या थीं. समस्या थी कि गांव में राशन की एक ही दूकान है जो मुखिया के जिम्मे है. वह सारा राशन ब्लैक में बेच देता है. गांव में बिजली के खम्भे ८ साल से लगे हैं, लेकिन उनमे तार नहीं लगाए गए हैं, सो तार लगाए जाएँ और बिजली दी जाए, एक कमरे का अस्पताल बनना था, लेकिन अधूरा छोड़ दिया गया है. उसे पूरा किया जाए और डाक्टर साहब उसमे आया करें. गांव के स्कूल में मास्टर साहब बच्चों को पढ़ाया करें. वगैरह. – आप देख रहे हैं ये सब संविधान संशोधन, किसी भ्रष्टाचारी की बर्खास्तगी जैसी कोई महान मांगे नहीं थीं. लेकिन ये वो मांगें थीं, जो आज भी बिहार के लगभग हर गांव की और देश के अधिकाँश गांवों की मांगें हैं और जिन्हें कभी सीरीयसली नहीं लिया जाता.
जब ज्ञापनों, स्मारपत्रों वगैरह की कोई सुनवाई नहीं हुई तो सीताराम सिंह ने अनशन करने की ठान ली. इसकी नोटिस सभी को भेज दी और निर्धारित तिथि पर वे हिसुआ ब्लॉक ऑफिस में आमरण अनशन पर बैठ गए. ना ढोल नगाड़े बजे, ना टीवी वाले कैमरे लेकर आये. अख़बारों में भीतरी पेजों पर संक्षिप्त में भी कुछ नहीं छपा. अफसरों ने सोचा – खब्ती है, कुछ दिन में खुद भाग जाएगा.
वे सीपीआई के मेंबर थे. सीपीआइ उन दिनों सत्तारूढ़ लालू प्रसाद की पार्टी के साथ हनीमून पर थी. सो उसने सीताराम को अनशन करने से मना किया और नहीं माने तो पार्टी से निकाल दिया. अब सीताराम रह गए और अकेले. लेकिन उन्होंने अनशन नहीं तोडा. दस दिन, बीस दिन, तीस दिन, चालीस दिन ….जब पचास दिन होने वाले थे और उनकी हालत गंभीर हो चुकी थी, तब जिलाधिकारी ने उन्हें जबरन उठवा कर गया के मगध मेडिकल कालेज में भरती करा दिया. लेकिन सीताराम सिंह ने अनशन नहीं तोडा और अंततः ५९ वें दिन उनका देहांत हो गया. अफसर डर गए कि अब तो बड़ा बखेडा हो जाएगा. लेकिन अपने देश में छोटे आदमी के मरने कटने या चिल्लाने से कोई बड़ा बखेडा कभी नहीं होता. इसके लिए तो बड़ा कद होना चाहिए, मीडिया मैनेजमेंट आना चाहिए. सीताराम सिंह मर गए तब पटना के किसी बड़े अखबार में एक छोटी सी खबर छपी कि ५९ दिन अनशन के बाद सीताराम सिंह नाम के एक आदमी मर गए.
नवभारत टाइम्स, पटना, के संपादक अरुण रंजन ने इस खबर का नोटिस लिया और एक युवा पत्रकार नीलाभ मिश्र को स्पेशल रिपोर्टिंग के लिए कैथिर भेजा. फ्रंट पेज पर पूरे दो कालम में नीलाभ की स्पेशल रिपोर्ट छपी, सीताराम सिंह के बारे में. वे नीलाभ मिश्र अब प्रसिद्ध पत्रिका आउटलुक के संपादक हैं. शायद बूढे हो गए होंगे, हो सकता है, भूल भी गए हों इस घटना को. युवा रहते तो अन्ना के अनशन के सन्दर्भ में इस घटना को अपनी मैग्जीन में ज़रूर एक बार याद करते. खास कर इसलिए भी कि गांधी दर्शन में अंतिम अस्त्र है, अनशन और अनशन करके मर जाने से बढ़ कर और भला क्या किया जा सकता है गांधी के हिसाब से? नीलाभ ये सब लिखते. युवावस्था में भी उन्होंने बहुत मार्मिक और विद्वतापूर्ण रिपोर्ट लिखी थी, सीताराम सिंह की मौत पर. खैर उनकी रिपोर्ट बढ़िया से छप गई. जैसा आम तौर पर होता है, लोगों ने काफी तारीफ़ की – रिपोर्ट की.
सरकार की ओर से कोई बयान नहीं आया. ऐसे मौकों पर होता ही है, जब कोई जवाब नहीं होता सरकार और अफसर चुप्पी साध लेते हैं. वे कोई मनीष तिवारी और कपिल सिब्बल तो हैं नहीं कि बेमतलब बयान बियाते चलें.
बहरहाल सीताराम सिंह की मांगो पर क्या हुआ, यह तो पता नहीं. लेकिन शायद उनके एक बेटे को गया डीएम के ऑफिस में डेली वेजेज पर चपरासी की अस्थाई नौकरी दे दी गई. और मामला रफा दफा.
लेकिन क्या हुआ उन मांगों का जिनके लिए सीताराम सिंह ने जान दी? आठ साल से ठूँठ खड़े तारों पर बिजली के तार दौड़े या नहीं? वह अधबना अस्पताल पूरा बना या नही? क्या डाक्टर साहब वहां आने लगे और मास्टर साहब स्कूल में पढाने लगे? आपके ये सवाल मैथिली शरण गुप्त वाले अबोध राहुल की “माँ कह एक कहानी……” जैसे लगने लगते हैं.
फिर भी १९९७ में जब सीताराम सिंह को मरे हुए पांच साल और देश की आज़ादी के ५० साल पूरे हो चुके थे, मैं आपके इन सवालों के जवाब जानने कैथिर गया था. मैंने देखा बिजली के जिन ८ साल पुराने खम्भों पर तार लगाने और बिजली दौड़ाने की मांग करते करते सीताराम सिंह शहीद हो गए, वे खम्भे अब १३/१४ साल पुराने हो चुके थे. लकड़ी के थे जो सड़ कर जर्जर हो चुकी थी. जिस एक कमरे के अस्पताल को पूरा करने की मांग उन्होंने की थी, वह पूरा नहीं हुआ था. कंधे तक खड़ी थीं चार दीवारें – अर्थहीन. विकास ये हुआ था कि उन चारों दीवारों के बीच एक बड़ा सा पेड और कुछ झाडियाँ उग आई थीं. मुखिया की राशन दूकान बंद तो नहीं हुई थी, लेकिन तीन राशन दुकानें और खुल गई थीं. अपनी पुश्तैनी ज़मीन पर सीताराम सिंह ने दलितों को बसा दिया था. इन दलितों ने सीताराम सिंह के बारे में कहा कि वे तो देवता थे. गांव के लोगों ने कहा, वे बाकी लोगों से एकदम अलग थे. बीडीओ ने कहा – “मैंने ऐसे किसी आदमी के बारे में सुना तो नहीं, अभी कुछ ही महीने पहले मेरी पोस्टिंग यहाँ हुई है. लेकिन आप बता रहे हैं तो पता लगाऊंगा कि क्या मांगे थीं. योजना बना कर उन्हें पूरा किया जाएगा.”
सीताराम सिंह की बेहद बूढी माँ ने कहा –“ बबुआ सब बिलवा देलन”. (सब कुछ नष्ट कर दिया.)
पता नहीं क्यों, अन्ना के अनशन की जीत सुन कर सीताराम सिंह याद आये. मन हुआ, एक बार और कैथिर जाऊं और देखूँ कि २० बरस बाद भी वे खम्भे खड़े हैं, यूँ ही आसमान निहारते, या गिर गए. लेकिन फिर सोचता हूँ, मैं क्यों हमेशा पत्रकार की तरह निगेटिव ही सोचता हूँ? ये भी तो हो सकता है कि उनमे तार लग गए हों, खम्भे बदल दिए गए हों, उनमे बिजली दौड़ रही हो, डाक्टर साहब अस्पताल में बैठे मरीजों का इलाज कर रहे हों, मास्टर साहब स्कूल में बच्चों को पढ़ा रहे हों, ऊपर आसमान से सीताराम सिंह अपना गांव देख कर मुस्कुरा रहे हों, ठीक वैसे ही जैसे टेलीविजन पर अन्ना मुस्कुरा रहे हैं और जैसे गांधी मुस्कुराते हैं, तस्वीरों में.
सीताराम सिंह की कोई तस्वीर किसी के पास नहीं है. कि वे कितना और कैसे मुस्कुराते थे – अनशन के बाद – और मुस्कुराते थे भी या नहीं. नहीं मालूम कुछ भी उस मामूली आदमी और उसके आमरण अनशन के बारे में. ये भी नहीं मालूम कि वो जीता अन्ना के साथ या फिर हार गया.

गुंजन सिन्हा.

2 comments:

  1. सर आपका यह आर्टिकल अच्छा लगा और एक चीज़ यह भी की आज कल लोग वो ही करते जो दूसरे करने को कहते हैं( लायक " बिग ब्रदर ")

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  2. Sir is desh me swargiye Sitaram ji jaise hazaro gumnam desh ke sache sipahiyon ki koi kami nahi hai. lekin in ke sath samasaya hoti hai ki inka andolan bhi gumnam hota hai aur kuch samay baad woh bhi gumnaam hote chale jate hain. kiyonki unke paas Anna Hazare ke piche kaam kar rahi shakti nahi hoti, unke paas media ka support nahi hota kiyon ki (Nalanda aur kaithir gaon se unhe koi TRP ka fayada nahi ho sakta), unke piche kisi political parti nahi hoti (kiyon ki unka andolan satta parivartan karan aur kursi khichna nahi) balki unka andolan aam admi ko woh sari suvidha dilana hota jiske woh haqdaar hain. warna jo qurbani Shri Sitaram jee ne diya woh qurbani Anna Hazar, Arvind Kejriwal aur Kiran bedi ne na kabhi diya hai aur na kabhi de sakte hain. Lekin Sitaram jaise shakshiyat gumnam dam tod deti hai aur Annas teem hero ban jate hain. jab ki meri nazar me Shri Sitaram je ka andolan Anna ke andolan se kahi jyada mahtvpurna tha. Sir aap hamesh se mere liye adarsh rahe hain. Aap is article ko news paper me zaroor issue karaiye. Taki Anna Hazare aur uski team ka ye gumaan khatam ho ki is desh me wahi char panch log imandar nahi hain balke lakho hindustani jo bagair dhindhora pite Imaandari, Sacchai, aur Desh bhakti ki zinda mishal hain.

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