Sunday 23 October 2011

नमस्ते

वर्षों तलाशता रहा  रस्ते कि कह सकूँ बातें जो कहना चाहता हूँ .
बरस बीतते रहे. बातें लहरों की तरह ज़ेहन में आती रहीं, जाती रहीं. सिर पटकती रहीं
किनारे के पत्थरों पर और मरती रहीं, अनसुनी.
बड़े बड़े अख़बार, चैनेल और दफ्तर- इन दफ्तरों से, इस व्यवस्था से पता नहीं कैसे हर बार
निराश होकर भी उम्मीद बनती रही कि इनकी मार्फ़त कह सकूँगा अपनी बात
जो ज़रूरी है सबके लिए.
सबके लिए ज़रूरी है जानना कि सबसे खतरनाक है.
गुलामी सोच की. हमारे नाम की तरह हमें पहना दी गयी है एक सोच
नाथ दी गयी है दिमाग में ठीक वैसे ही जैसे नाथाते हैं बैल कि नाक
अब हम अभिशप्त हैं वैसे और वही सोचने को जो सिखाया गया.
यह लाल है वह हरा पीला
कोई सवाल नहीं कि लाल हरा क्यूँ नहीं
कोई मलाल नहीं कि दुनिया ऐसी क्यों है जैसी वो है.


No comments:

Post a Comment